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रविवार, 8 सितंबर 2013

इक ख़ाब

सुबह सुबह इक ख़ाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला
देखा सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आँखों से मानूस थे सारे, चेहरे सारे सुने सुनाए
पाँव धोए, हाँथ धुलाए, आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पे मक्के के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मेरे
पिछली सालों की फसलों का गुड़ लाए थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाँथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक बुझा नहीं था
और होठों पर मीठे गुड़ का ज़ायका अब तक चिपक रहा था
ख़ाब था शायद
ख़ाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख़ाबों का खून हुआ है।।
" गुलज़ार "