चिट्ठाजगत रफ़्तार Hindi Blog Tips

रविवार, 8 सितंबर 2013

इक ख़ाब

सुबह सुबह इक ख़ाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला
देखा सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आँखों से मानूस थे सारे, चेहरे सारे सुने सुनाए
पाँव धोए, हाँथ धुलाए, आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पे मक्के के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मेरे
पिछली सालों की फसलों का गुड़ लाए थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाँथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक बुझा नहीं था
और होठों पर मीठे गुड़ का ज़ायका अब तक चिपक रहा था
ख़ाब था शायद
ख़ाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख़ाबों का खून हुआ है।।
" गुलज़ार "

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

280 लाख करोड़ का सवाल है ...

280 लाख करोड़ का सवाल है ...
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के
डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280
लाख करोड़ रुपये (280 ,00 ,000 ,000 ,000) उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम
इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.
या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है
कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह
सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम
इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60
साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत
नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को
लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2010 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना
बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज
करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280
लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64
सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने
करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा
करवाई गई है. भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की
कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ
है. हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार
है.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी
स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले
अभी उजागर होने वाले है ........आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो. इसे भी इतना
फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये ...


सदियो की ठण्डी बुझी राख
सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज् पहन इठलाती है।
दो राह,
समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिहासन खाली करो की जनता आती है।
जनता ?
हां, मिट्टी की अबोध् मूर्ते....
वही,
जाडे पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब् अन्ग अन्ग मे लगे सांप हो चूस् रहे.......

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

आधुनिक रंगभाषा और अभिनेता का अस्तित्व




              रंगमंच की - रंग भाषा में सिनेमा की तर्ज़ पर दर्शक को चोकने का चलन जोरो पर है, जिसके चलते रंगमंच परइलेक्ट्रोनिक युक्तियों का उपयोग हो रहा है जो दर्शक को भ्रमित करता और चोकता है | रंगमंच दर्शक को अनुभवप्रदान करता है अगर सार्थक हो तो, दर्शक कुछ महसूस कर आत्मसात करता है | पर रंगमंच की सबसे बड़ीजीवित शक्ति एवम तकनीक अभिनेता आज की इस इलेक्ट्रोनिक - रंगभाषा में अपने अस्तित्व को खोज रहा हें क्योंकि  दर्शक इलेक्ट्रोनिक चमत्कारों को देखता है अभिनेता उस महिमा में  बोने दिखाई देते हें क्यों ? कभी रंगमंच पर अपने अभिनय से दूसरी दुनिया की यात्रा करवाने वाला सर्वशक्तिमान अभिनेता आज के रंगमंच में बेचारा जान पड़ता है | पात्र बन अलग-अलग रस में दर्शको को सराबोर करने वाला आज संवादों को बोलने के लिए तरसता हें वो भी रेकॉर्डेड होते है | रंग - संगीत इलेक्ट्रोनिक ध्वनियों का ज़खीरा हो गया जो अब - कर्ण प्रिये नहीं शोर जान पड़ता हें | बुजर्गो का दर्शक वर्ग ये सब नहीं बर्दाश्त कर पाता जोर आवाजें की, अनावश्यक प्रकाश व्यवस्था और दर्शक चोंका कर घर भेजता है | मैं प्रयोग का विरोधी हु नहीं, पर चाहता हु कि युवा रंग निर्देशक माध्यम की उर्जा को समझे सिनेमा और - रंग मंच दो अलग और सशक्त माध्यम हें दोनों की खूबी है, सहजता और सोम्यता रंगमंच की पहचान हें जिसे बरक़रार रखना भी हम युवाओ की ज़िमैंदारी है | प्रयोग की स्वायतता और मोलीक रंग - मंच के बारे मे सोचे और - रंगसंवाद ताकि अपने भारतीय रंगमंच को सार्थक रंगमंच तक बने.

अब्सर्ड नाटक और हिंदी रंग-मंच


अब्सर्ड नाटक और हिंदी रंग-मंच


Absurd साहित्य ने विशेष रूप से, 1940 में Euorope में जन्म लिया, एक प्रचुर धरा और तेजे से ये विक्सित हुआ, ये साहित्य और इसका आन्दोलन मुख्य धारा का हिस्सा बन गया. ये आन्दोलन कोई आम उद्देश्य, स्पष्ट दर्शन या विचारधारा का आंदोलन नहीं था. ये अव्यवस्तिथ साहित्य आन्दोलन था, इसके मुख्य लेखक, ALBERT CAMUS, JEAN-PAUL SARTRE, N.F.SIMPSON, SAMULE BECKETT, GUNTER GRASS, FARNNADO ARRABAL, EDWARD ALEBE, HEROLD PINTOR, GENET, ARTHUR ADAMOV थे, जिनकी रचनाओ ने साहित्य के सभी परिपाटियों में हलचल पैदा की .
                Absurd शब्द मूलतः बेतुका ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में इस्तेमाल किया, absurd शब्द, संगीत की विद्या का था और इसका मतलब है कोलाहल, गणित में इसका मतलब "कुछ भी" है, अलग-अलग या अराजक है, तर्क की द्रष्टि मैं इस शब्द का अर्थ न्यायविस्र्द्ध, या सौंदर्यशास्त्र में तर्कहीन, absurd मतलब है अप्रासंगिक या विषम. या कुल मला कर जो अप्रासंगिक, व्यर्थ, बेकार और हास्यास्पद हो वो absurd हे. मूलतः. , बेतुका शब्द, संगीत की विद्या का था और कोलाहल का मतलब है, गणित बेतुका मतलब कुछ भी है कि अलग - अलग या अराजक है में तर्क में, शब्द का अर्थ न्यायविस्र्द्ध या सौंदर्यशास्त्र में तर्कहीन, इसका मतलब है अप्रासंगिक या विषम. जो रचना अप्रासंगिक, व्यर्थ, बेकार और हास्यास्पद हो .

Absurd Play की विशेषता क्या है?
               Absurd नाटक मैं स्वप्न, फंतासी, कल्पना, सभी तत्व काव्य-नाटक की तरह होते है, लेकिन मोलिक और ज़मीनी फर्क हे इसकी भाषा , काव्य नाटक मैं भाषा सुन्दर , परिष्कृत और काव्यात्मक होती है. जबकि absurd नाटको की भाषा अपरिष्कृत और भाषिक सोंदर्य के आसपास भी नहीं होती ,उसकी बे-तरतीबी ही उसका हुस्न होती हे ,इसकी भाषा में संवाद के शाब्दिक अर्थ का मतलब नाटक के कथ्य से अलग भी हो सकता .अर्थात संवाद और कथ्य मैं कोई सामंजस्य नहीं होता .ये असमंजस्य चरित्र और कथ्य में "psychic distance" प्रदान करता हे जो बिखरा किन्तु बहु-आयामी लगता हे."psychic distance के कारण भाषा का वर्चस्व तो कम होता हे क्योंकि इस तरह के नाटक का भाषिक और तर्किकी मूल्यांकन संभव नहीं क्योंकि इसको साहित्य की निश्चित परिपाटी पर नापना इसके क्राफ्ट और सोंदार्ये के खिलाफ हे. इन नाटको में हम दुनियादारी , जीवन के यांत्रिकीकरण और उसके दुश-परिणाम की तस्वीर देख पते हे
              कामू के अनुसार, लोगों के व्यवहार कुछ परिस्थतियों में व्यर्थ दिखाई देता हे , "कामू." एक कांच की दीवार के पीछे फोन पर बात कर रहे किसी आदमी की स्थिति की तुलना करते हे हम केवल होंठ हिलाना और हाथ का इशारा देख सकते हैं लेकिन हम सुन नहीं सकते .कुछ इस तरह के दृष्टिकोण से absurd नाटको के द्रश्य होते हे ऐसे ही अनुभवों को प्रदान करने औ रखोजने का प्रयास थे absurd नाटक.

सोमवार, 8 नवंबर 2010

हमारी लोक संस्कृति


पूजा करती महिलाएं

बिहार की पारंपरिक लोक
            संस्कृति






हमारी लोक  संस्कृति में महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अनेक गतिविधियों  का बड़ा भारी महत्त्व है. उन गतिविधियों कि कड़ी में भैया दूज  एक अहम् कड़ी के रूप में देखा जा सकता है. बिहार की लोक परम्परा में जैसे डोमकच, झिझिया आदि हैं उसी तरह भैया दूज का भी महत्त्व काफी बड़ा है. इस पर्व में बहन उपवास रखती है. चौराहे पर गावों-घर की महिलाएं इकठा होतीं हैं. चौराहे को गाय के गोवर से लीपती है. गोबर से ही यमराज कि आकृति बनती हैं. मुसड़ के साथ झावां ईटा कि भी पूजा कि जाती हैं. 
यम के घर और यम कि आकृति
ऐसी मान्यता है कि यम द्वुतिया के दिन बहन अपने भाई कि लम्बी उम्र के लिए ब्रत रखती है. चौराहे पर गीत आदि गाती है, पहले भाई को श्राप देती है उसके बाद अपने जीभ में रेगनी के कांटे से छेदती है. रुआ को लम्बा कर उसमें घी और सिंदूर लगा कर माला जैसा बनती है. जिसे स्नेह जोड़ना कहते है. वह स्नेह भाई के कलाई पर बांध जाता है. समाठ  से यम का घर व यम को झावां पर रख कर कूट देते हैं. इसके पीछे कारण यह है कि यम और भाई के दुशमन को हमने कूट दिया है जिससे हमारा भाई सुरक्षित हो गया अब हमारे भाई को कुछ नहीं होगा.

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

नक्सलियों का करतूत

नक्सलियों का करतूत

नक्सली का मामला अब सिर्फ बात चित से हल होने वाला नहीं है अब नक्सलवाद व नक्सलवाद नहीं रहा उनकी लराई बदल चुकी है.  नक्सली लोगो के पास वैचारिक लराई तो बिलकुल ही नहीं रहा. अब सिर्फ लोगों को नुकसान पहुचना ही इनका मकसद बन गया है. कुच्छ दिन पहले का वाकया को ध्यान करें तो सब स्पष्ट हो जाता है. इस  का मुकमल उपाए भी सोचना होगा. हम सब को प्रयास करना होगा की लोग खुल कर सामने आयें और नक्सलियों के विषय में प्रशासन को बतावें.
           पूरा पालीगंज इलाका के लोग नक्सलवादी लोगों से प्रेषण हैं. उनका सुध लेने वाला भी कोई नहीं है. पिचले कई वर्षो का इतिहास उठा ले तो पाएंगे की 1993  मै मौरी गाँव में नक्सली लोगों ने ललन तिवारी का घर को खलिहान बनादिया. लेकिन सरकार सोती रही. आखिर लोग करे तो क्या करें ?
            1993 से ललन तिवारी का परिवार दर - दर की ठोकरें खाते रहे . वे सरे लोग दुसरे जगह जा कर रहने लगे. उनका आज भी घर खलिहान की तरह ही दिखता है. घर अब जमींदोज हो चूका है. गर में अब बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ उग गई हैं. कभी कभी उनका परिवार गाँव आता है पर कोई पहचानता कोई नहीं, इतने पर भी नक्सलियों से रहा नहीं गया उन लोगो ने उनका हरा भरा तीन पेड़ काट लिए, पुचने पर उन लोगों का जबाब था " जरुरत थी तो काट लिया क्या कर लीजियेगा गा ? "  इसका क्या जबाब हो सकता है ? जिरह करने पर यह धमकी मिलता है की जन से भी जाओगे.
इस आतंक को कौन ख़त्म करेगा ?

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

गली गली में नुक्कड़ नाटक

गली गली में नुक्कड़ नाटक
-देवेंद्रराज अंकुर
पूर्व हो या पश्चिम - यों तो नाटक और रंगमंच की शुरुआत ही खुले में हुई अर्थात नुक्कड़ ही वह पहला स्थान था जो नाटकों के खेलने में इस्तेमाल हुआ। आदिम युग में सब लोग दिन भर शिकार करने के बाद शाम को अपने-अपने शिकार के साथ कही खुले में एक घेरा बनाकर बैठ जाते थे और उस घेरे के बीचो-बीच ही उनका भोजन पकता रहता, खान-पान होता और वही बाद में नाचना-गाना होता।
इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी - प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन। इसी का विकसित रूप हमें तब भी देखने को मिलता है जब आज से लगभग ढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष पहले यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर, चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन किया करता था। 

स्वयं भारत में भी इसी समय के आस-पास अथवा इससे भी पूर्व से लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये लव-कुश राम के पुत्रों के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के समांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशीलव के नाम से ही जाना जाने लगा। संभवत: यही कारण है कि नाटकों के लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी अपने नाट्यशास्त्र में दशरूपक विवेचन के अंतर्गत 'वीथि' नामक रूपक का भी उल्लेख किया है। आज भी आंध्र प्रदेश में लोकनाट्य परंपरा की एक शैली का नाम की 'वीथि नाटकम' मिलता है और आधुनिक नुक्कड़ नाटक अथवा स्ट्रीट थिएटर को भी इसी नाम से जाना जाता है।

मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास यदि भारत के विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में लोक नाटकों के रूप में हुआ तो उसी के समांतर पश्चिम में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का प्रचलन शुरू हुआ जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते थे और मूलत: धर्म के प्रचार के लिए ही खेले जाते थे। ये नाटक भी खुले में, मैदानों, और चौराहों और बाज़ारों में ही मंचित किए जाते थे और दिन की रोशनी में ही, जबकि हमारे यहां नाटक लगभग अपने आरंभ काल से ही ज़्यादातर रात में ही खेले जाते थे। इसके लिए हमारे यहां की तत्कालीन जीवन-व्यवस्था तो ज़िम्मेदार थी ही, अर्थात दिन भर खेतों में काम करने के बाद, रात में ही उन्हें ऐसे मनोरंजन की ज़रूरत पड़ती थी जो उनकी थकान मिटा सके।

इतना ही नहीं, रात के साथ ही इस तरह के प्रदर्शनों, मनोरंजनों का जुड़ना समाज में उपस्थित एक सुरक्षित जीवन-पद्धति की तरफ़ भी इंगित करता है जबकि पश्चिम में स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। वहां मध्यकाल में, दिन में नाटकों के मंचन की आवश्यकता का जन्म ही इसलिए हुआ था कि लोग शाम ढलने से पहले ही सुरक्षित अपने घरों को लौट सकें। मध्यकाल में आविर्भूत इन्हीं धार्मिक नाटकों ने आज के नुक्कड़ नाटकों से जुड़े एक और आवश्यक तत्व को जन्म दिया और वह है प्रचार के लिए नाटक विधा का प्रयोग।

वास्तव में प्रचार ही वह मूल मंत्र है, जो नुक्कड़ नाटकों के वर्तमान स्वरूप, संरचना और इतिहास से अनिवार्य रूप से जुड़ा है। आज जिस रूप में हम नुक्कड़ नाटकों को जानते है, उनका इतिहास भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है। इसी का एक विधिवत रूप 'इप्टा' जैसी संस्था के जन्म के रूप में सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं सत्ता का विरोध आरंभ हुआ। इस प्रकार किसी भी गल़त व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है - यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी टिकी हुई है। कभी वह किस्से-कहानियों का प्रचार था, कभी धर्म और कभी राजनैतिक विचारधारा। किसी भी युग और काल में इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं। आज तो स्थिति यह हो गई है कि बड़ी-बड़ी व्यावसायिक-व्यापारिक कंपनियाँ अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं, सरकारी तंत्र अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई पड़ते है और ऐसे में इस विधा की वह सही पहचान कहीं खो-सी गई है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे क्रिकेट में एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट ने पांच दिवसीय शास्त्रीय क्रिकेट को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है, वीडियो-दूरदर्शन जैसे तुरत-फुरत माध्यमों ने फ़िल्मों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है और रोज़ाना पैदा हो रहे खिचड़ी-संगीत ने शुद्ध शास्त्रीय और कर्णप्रिय संगीत की परंपरा को ही नष्ट कर दिया है।

आख़िर नुक्कड़ नाटक की वह अपनी असली पहचान क्या थी? यह एक ऐसा माध्यम है जो स्वयं लोगों के बीच पहुँचता है, उन्हीं की समस्याओं से रू-ब-रू होता है और उन्हीं की भाषा में संवाद करता है। उसकी भूमिका मुख्यत: विरोध की रहती है क्यों कि उसका उद्देश्य किसी भी तत्कालीन व्यवस्था में ग़लत हो रही बातों की तरफ़ जनमानस का ध्यान आकृष्ट करके उन्हें उसके प्रति जागृत करना है और यदि संभव हो तो उस ग़लत व्यवस्था से लड़ने के लिए तैयार करना है। दूसरे शब्दों में कहे तो नुक्कड़ नाटक की मूल प्रकृति एक उत्प्रेरक की है जो दर्शकों को किसी भी समस्या से साक्षात्कार कराकर यह भी अपेक्षा रखता है कि वे व्यवहार के स्तर पर भी कोई निर्णय लेंगे। एक दूसरे रूप में वह ब्रेख्त के उस महाकाव्यात्मक रंगमंच के 'अलगाव सिद्धांत' से भी मिलता-जुलता है, जहां दर्शक से अपेक्षा की जाति है कि वह कथा के बहाव के साथ न बह जाए वरन उससे दूरी बनाए रखकर उसे देखे और उस पर सोच-विचार कर अपने जीवन में क्रियान्वित करे। नुक्कड़ नाटक की इस मूल प्रकृति ने उसके स्वरूप और संरचना को भी काफ़ी हद तक सुनिश्चित कर दिया-खुले में, चौराहों और बाज़ारों में आती-जाती भीड़ को आकर्षित करना, बहुत कम समय में अपने संदेश को प्रसारित करना और वैयक्तिक चरित्र-चित्रण की बजाय अभिनेताओं की सामूहिक भागीदारी से कथ्य को आगे बढ़ाना। मंचीय तामझाम के मोह को छोड़ते हुए मात्र अभिनेताओं के माध्यम से अथवा अधिक से अधिक एक-आध मंच उपकरणों के प्रयोग से काम चलाना। इस प्रकार नुक्कड़ नाटक सचमुच में एक यायावर मंडली की अपेक्षा रखता है, जो तेजी से क़स्बों, शहरों और गांव-गांव जाकर छोटे-छोटे नाटकों से लोगों की ही अपनी समस्याओं के प्रति उन्हें जागरूक बना सके। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पूरी रचना प्रक्रिया में गीत, संगीत और कभी-कभी नृत्य का भी अपना विशेष योगदान रहता है। यदि ये तत्व अलग से नहीं भी होते तो भी संवादों को बार-बार दोहराने के क्रम से एक शैलीबद्धता अपने आप बनती चली जाती है। कहने का अभिप्राय यही है कि नुक्कड़ नाटक मूलत: एक वैयक्तिक विधा न होकर समूह को अपने साथ लेकर चलती है अर्थात वह अनिवार्य रूप से एक कोरस की अपेक्षा रखती है।

इसलिए नुक्कड़ नाटक एक बहुत ही सशक्त और जीवंत माध्यम है और यह अकारण नहीं कि भारत हो या यूरोप के कुछ पश्चिमी देश - उन्होंने अपनी राजनैतिक विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा को हाथों-हाथ लिया। भारत में अपने वर्तमान रूप में नुक्कड़ नाटकों का इतिहास यदि पचास-साठ साल पुराना है तो पश्चिम में भी तीस साल पहले ही इस तरह की शैली में नाटक खेले जाने लगे। यों भारत में भारतेंदु के 'अंधेर नगरी' को भी इस शैली का पहला आधुनिक नुक्कड़ नाटक माना जा सकता है, जिसका पहला मंचन १८८१ में दशाश्वमेध घाट, बनारस में खुले में हुआ था। बहरहाल, आज़ादी के आंदोलन के दौरान नुक्कड़ नाटकों ने 'इप्टा' के माध्यम से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके बाद भी आज तक कमोबेश उसी रूप में नुक्कड़ नाटकों का मंचन और प्रचलन जारी है।

लेकिन इसके साथ ही नुक्कड़ नाटकों को कुछ सवालों का सामना भी करना पड़ रहा है और वह इस रूप में कि नुक्कड़ नाटक महज़ प्रचार का ही हथकंडा बनकर रह जाए या फिर उसका भी अपना कोई व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र हो सकता है? क्या कारण है कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर सभी नुक्कड़ नाटकों का चेहरा एक-सा ही होता जा रहा है? क्या चौराहों, बाज़ारों में लोगों की भीड़ को एकत्रित करके ज़ोर-ज़ोर से एक ही बात को चीख-चिल्ला अथवा गाकर बताने का नाम ही नुक्कड़ नाटक है या कि उसके लिए भी अभिनेताओं की कोई विशेष प्रशिक्षण पद्धति हो सकती है? विरोध और रोज़मर्रा की समस्याओं से अलग भी गहरे व गूढ़ बातों में जाकर क्या नुक्कड़ नाटक उनकी जांच-पड़ताल नहीं कर सकता?

आज से सोलह साल पहले १९८३ में भारत भवन, भोपाल और केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में भोपाल में चार-पांच दिनों का एक नुक्कड़ नाटक महोत्सव हुआ था, जिसमें देश भर से बीस-पच्चीस नुक्कड़ नाट्य मंडलियों ने शिरकत की थी और उपर्युक्त समस्याओं पर भी विचार-विमर्श किया था। उसके बाद फिर कभी नुक्कड़ नाटकों पर ऐसा आयोजन और बहस हुई हो- मेरी जानकारी में नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस महोत्सव में भी और उसके बाद के कुछ वर्षों में कुछ नाट्य मंडलियों ने निश्चित ही नुक्कड़ नाटकों के बने बनाए ढर्रे को छोड़कर अत्यंत कल्पनाशील मुहावरे में नुक्कड़ नाटकों की रचना और मंचन किए और उनका अपेक्षित असर भी पड़ा। क्या यह अपने आप में एक नाटकीय विडंबना नहीं है कि जहां आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक स्तर पर इस शताब्दी के अंतिम दशक में इतनी उथल-पुथल हो रही है, वहां नुक्कड़ नाटकों की वह प्रभावी भूमिका लगभग उदासीन-सी होती जा रही है। अब वह समस्याओं और विचारधारा का वाहक उतना नहीं रह गया है जितना कि बड़ी-बड़ी व्यापारिक कंपनियों के उत्पादनों के प्रचार का एक आकर्षक माध्यम। आज अधिकांश रंगकर्मी नुक्कड़ नाटकों के इसी विकल्प से जुड़े है और बाकायदा अपनी रोज़ी-रोटी पा रहे हैं।

आख़िर ऐसा क्यों हुआ? यदि हम नुक्कड़ नाटकों के संदर्भ में इसका उत्तर खोजने की कोशिश करें तो निश्चित ही कुछ कारण दिए जा सकते हैं। मेरे विचार में नुक्कड़ नाटकों के प्रति बढ़ती उदासीनता का सबसे बड़ा कारण यही है कि शायद आरंभ से ही नुक्कड़ नाट्य विधा को एक बहुत ही सुविधाजनक रास्ता मान लिया गया था। सुविधाजनक इस अर्थ में कि कुछ लोग जुट गए, चौराहे पर पहुँच गए और कुछ भी उछल-कूद, शोर-शराबा करके आगे बढ़ गए। इसी से जुड़ा दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग इस विधा से विचारधारा के तहत जुड़े थे, उनमें से अधिकांश में उस विचारधारा के प्रति स्वयं में ही कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। और सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि जिस विचारधारा की प्रतिबद्धता के संदर्भ में रंगकर्मियों ने व्यवस्था के विरोध में नुक्कड़ नाटक किए, बाद में उसी विचारधारा की व्यवस्था के स्थापित होने के बाद उनके सामने इस दुविधा ने जन्म लिया कि अब वे किसका विरोध करें? इस उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल और केरल का नाम लिया जा सकता है, जहां वामपंथी विचारधारा के सत्ता में आने के बाद विरोध के रंगमंच की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। यदि चाहें तो कह सकते हैं कि कुछ हद तक प्रचार तंत्र के रूप में संचार माध्यमों की बढ़ती लोकप्रियता ने भी नुक्कड़ नाटकों के चलन-प्रचलन को धक्का पहुँचाया है।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह जिज्ञासा सहज-स्वाभाविक है कि ऐसे में नुक्कड़ नाटकों का भविष्य क्या होगा? यों तो यह प्रश्न नाटक और रंगमंच जैसी विधा को संपूर्ण रूप से भी संबोधित किया जा सकता है क्यों कि रंगमंच स्वयं में ही एक क्षणभंगुर माध्यम है अर्थात वह दिन-प्रतिदिन पैदा होता है और उसी दिन उसकी मृत्यु भी हो जाती है। उस पर नुक्कड़ नाटक के साथ वह ख़तरा तो और भी गहरे रूप से जुड़ा हुआ है क्यों कि एक तो अपने कलेवर में वह बहुत छोटा होता है और दूसरे तात्कालिक समस्याओं पर आधारित होने के कारण उसका प्रभाव उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो जाता है। इसीलिए यह भी ज़रूरी है कि उसके अस्तित्व को कैसे बचाकर रखा जाए। इस दिशा में ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए। सबसे पहले इसकी शुरुआत स्वयं उन मंडलियों के सदस्यों की तरफ़ से होनी चाहिए, जो नुक्कड़ नाटकों को मंचित करते रहे हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हें एक तरह से अपना आत्मालोचन करना होगा कि वे नुक्कड़ नाटक जैसी विधा में क्यों काम कर रहे हैं? यदि कर रहे हैं तो कैसा काम कर रहे हैं? क्या उन्हें इसके लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं होती? यदि हां, तो उसके लिए क्या किया जाना चाहिए? दूसरी पहल नाटककारों की तरफ़ से होनी चाहिए। देखा गया है कि नुक्कड़ नाटक को बहुत ही हल्की-फुलकी विधा मानकर रचनाकार बहुत जल्दी-जल्दी इस ओर प्रवृत्त नहीं होते। अत: कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि नए और सशक्त आलेख सामने आएँ, जिन्हें मंचित करने में रंगकर्मियों को भी रचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़े। तीसरा और अंतिम विकल्प यह भी हो सकता है कि राज्य और केंद्रिय स्तर पर नुक्कड़ नाटकों के मंचन की नियमित प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाएं। आज भी यदा-कदा जब दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में आयोजित ऐसी नुक्कड़ नाट्य प्रतियोगिताओं में जाने का अवसर मिलता है तो प्राय: ऐसे आलेखों से सामना होता है जो सचमुच में आपको बाहर-भीतर से झिंझोड़कर रख देते हैं और सोचने पर विवश करते हैं। यदि ऐसे ताज़े आलेखों की शुरुआत आज के युवा छात्र लेखकों की तरफ़ से हो सकती है तो कोई कारण नहीं कि हमारे अनुभवी रचनाकार और भी ज़्यादा जटिल, संश्लिष्ट और गहरे नाट्यलेखों का सृजन न करें।
यदि ऐसा संभव हो जाए तो नुक्कड़ नाटक का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा और उनके मंचन के उसी दौर की वापसी होगी, जिसे नुक्कड़ नाटकों का स्वर्ण युग कहा जाता है अर्थात पचास, साठ और सत्तर के तीन दशक वाला दौर।